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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


घरजमाई मुंशी प्रेम चंद

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तीस मील की मंजिल हरिधन नें पाँच घंटों में तय की। जब वह अपने गाँव की अमराइयों के सामने पहुँचा, तो उसकी मातृ-भावना उषा की सुनहरी गोद में खेल रही थी। उन वृक्षों को देखकर उसका विह्वल हृदय नाचने लगा। मन्दिर का सुनहरा कलश देखकर वह इस तरह दौड़ा, मानो एक छलाँग में उसके ऊपर जा पहुँचेगा। वह वेग में दौड़ा जा रहा था, मानो उसकी माता गोद फैलाए उसे बुला रही हो। जब वह आमों के बाग़ में पहुँचा, जहाँ डालियों पर बैठकर वह हाथी की सवारी का आनन्द पाता था, जहाँ के कच्चे बेरों और लिसोड़ों में एक स्वर्गीय स्वाद था, तो वह बैठ गया और भूमि पर सिर झुकाकर रोने लगा, मानो अपनी माता को अपनी विपत्ति-कथा सुना रहा हो। वहाँ की वायु में, वहाँ के प्रकाश में, मानो उसकी विराट्-रूपिणी माता व्याप्त हो रही थी। वहाँ की अंगुल-अंगुल भूमि माता के पद-चिह्नों से पवित्र थी, माता के स्नेह में डूबे हुए शब्द अभी तक मानो आकाश में गूँज रहे थे। इस वायु और इस आकाश में न जाने कौन-सी संजीवनी थी, जिसने उसके शोकार्त्त हृदय को फिर बालोत्साह से भर दिया। वह एक पेड़ पर चढ़ गया और अधर से आम तोड़-तोड़कर खाने लगा। सास के वह कठोर शब्द, स्त्री का वह निष्ठुर आघात, वह सारा अपमान उसे भूल गया। उसके पाँव फूल गये थे, तलवों में जलन हो रही थी; पर इस आनन्द में उसे किसी बात का ध्यान न था।
सहसा रखवाले ने पुकारा- वह कौन ऊपर चढ़ा हैं रे? उतर अभी नहीं तो ऐसा पत्थर खींचकर मारूँगा कि वही ठंड़े हो जाओगे।
उसने कई गालियाँ भी दी। इस फटकार और इन गालियों में इस समय हरिधन को अलौकिक आनन्द मिल रहा था। वह डालियों मे छिप गया, कई आम काट-काट नीचे गिराये, और ज़ोर से ठट्टा मारकर हँसा। ऐसी उल्लास से भरी हुई हँसी उसने बहुत दिन से न हँसी थी।
रखवाले को यह हँसी परिचित मालूम हुई। मगर हरिधन यहाँ कहाँ? वह ससुराल की रोटियाँ तोड़ रहा हैं! कैसा हँसोढ़ा था, कितना चिबिल्ला। न जाने बेचारे का क्या हाल हुआ? पेड़ की डाल से तालाब में कूद पड़ता था। अब गाँव में ऐसा कौन है?
डाँटकर बोला- वहाँ से बैठे-बैठे हँसोगे, तो आकर सारी हँसी निकाल दूँगा, नहीं तो सीधे उतर आओ।
वह गालियाँ देते जा रहा था कि एक गुठली आकर उसके सिर पर लगी। सिर सहलाता हुआ बोला- यह कौन शैतान हैं, नही मानता। ठहर तो, मैं आकर तेरी खबर लेता हूँ।
उसने अपनी लकड़ी नीचे रख दी और बंदरों की तरह चट-पट ऊपर चढ़ गया। देखा तो हरिधन बैठा मुस्करा रहा हैं। चकित होकर बोला- अरे हरिधन, तुम यहाँ कब आये? इस पेड़ पर कब से बैठे हो?
दोनों बचपन के सखा वहीं गले मिले।
'यहाँ कब आये? चलो, घर चलो। भले आदमी, क्या वहाँ आम भी मयस्सर न होते थे?'
हरिधन ने मुस्कराकर कहा- मँगरू, इन आमों में जो स्वाद है, वह और कहीं के आमों में नहीं हैं। गाँ का क्या रंग-ढंग है?
मँगरू- सब चैनचान है भैया! तुमने तो जैसे नाता ही तोड़ लिया। इस तरह कोई अपना गाँव-घर छोड़ देता हैं? जब से तुम्हारे दादा मरे, सारी गिरस्ती चौपट हो गयी। दो छोटे-छोटे लड़के है। उनके लिए क्या होता है?
हरिधन- अब उस गिरस्ती से क्या वास्ता है भाई? मैं तो अपना ले-दे चुका। मजूरी तो मिलेगी न ? तुम्हारी गैया ही चरा दिया करूँगा; मुझे खाने को दे देना।
मँगरू ने अविश्वास के भाव से कहा- अरे भैया, कैसी बाते करते हो, तुम्हारे लिए जान हाजिर है। क्या ससुराल में अब न रहोगे? कोई चिन्ता नहीं। पहले तो तुम्हारा घर ही है। उसे सँभालो! छोटे-छोटे बच्चे है, उनको पालो। तुम नयी अम्माँ से नाहक डरते थे। बड़ी सीधी है बेचारी। बस, अपनी माँ समझो। तुम्हे पाकर तो निहाल हो जायेगी। अच्छा, घरवाली को भी तो लाओगे?
हरिधन- उसका अब मुँह न देखूँगा। मेरे लिए वह मर गयी।
मँगरू- तो दुसरी सगाई हो जायेगी। अबकी ऐसी मेहरिया ला दूँगा कि उसके पैर धो-धोकर पियोगे, लेकिन कहीं पहली भी आ गयी तो?
हरिधन- वह न आयगी।

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